Chapter Titles
1: चित्त का निरीक्षण
2: प्रेम है दान स्वयं का
3: परिस्थिति नहीं, मनःस्थिति
4: विचार नहीं, भाव है महत्वपूर्ण
5: स्वतंत्रता के सूत्र
विचार नहीं, भाव है महत्वपूर्ण
जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह सब मौजूद है। जीवन में जो भी सुंुदर है, वह सब मौजूद है। जीवन में जो भी सत्य है, वह सब मौजूद है। कोई किताब खोलने की जरूरत नहीं है कि किताब से हम उसे पहचानने जाएंगे, किताब बीच में दीवाल बन जाएगी। कोई विचार करने की जरूरत नहीं है कि हम विचार से उसे समझने जाएंगे, क्योंकि हम विचार से क्या समझेंगे, विचार बाधा बन जाएगा।
एक गुलाब के फूल को समझना हो, तो विचार की क्या जरूरत है? और एक चांद की चांदनी को समझना हो, तो विचार की क्या जरूरत है? और एक हृदय के प्रेम को समझना हो, तो विचार की क्या जरूरत है? लेकिन अगर हम प्रेम को भी समझने जाएंगे, तो पहले हम किताब खोलेंगे कि प्रेम यानी क्या?
और जो आदमी किताब के प्रेम को समझ लेगा, वह शायद फिर हृदय के प्रेम को समझने में असमर्थ हो जाए तो आश्चर्य नहीं है। और अगर हमें गुलाब के फूल को भी पहचानना है, तो पहले हम गुलाब के फूल के संबंध में पढ़ेंगे, सोचेंगे, फिर फूल के पास जाएंगे। फिर हमारा पढ़ा हुआ, सोचा हुआ गुलाब के फूल में दिखाई पड़ने लगेगा। लेकिन यह हमारा प्रोजेक्शन है, यह हम डाल रहे हैं। यह गुलाब के फूल से हममें नहीं आ रहा है, यह हम गुलाब के फूल में डाले चले जा रहे हैं।
विचारकों से ज्यादा अंधे आदमी दुनिया में नहीं होते। क्योंकि वह सब जो उनके भीतर है, उसे बाहर डालते रहते हैं। वे वही देख लेते हैं, जो देखना चाहते हैं; वे वही खोज लेते हैं, जो खोजना चाहते हैं, और उससे वंचित रह जाते हैं, जो है।
अगर हमें वही जानना है, जो है, तो मेरे सारे विचार खो जाने चाहिए। और भी एक बात समझ लेनी जरूरी है: परमात्मा कुछ भी है, तो अननोन है, अज्ञात है, मुझे पता नहीं है। और जो मुझे पता नहीं है, उसे मैं सोच-विचार कर कैसे पता पा सकूंगा? हम उसी के संबंध में सोच सकते हैं, जो हम जानते हों, जो नोन है। जिसे हमने जान लिया, उस संबंध में हम सोच सकते हैं। लेकिन जिसे हम जानते ही नहीं, उस संबंध में हम सोचेंगे कैसे?
सोचना सदा बासा और उधार है। विचार कभी मौलिक और ओरिजिनल नहीं होते। हो भी नहीं सकते। सब विचार बासे होते हैं और सब विचार उधार होते हैं। सब बॉरोड होते हैं। विचार कभी भी ताजा और नया नहीं होता। विचार सदा बासा और पुराना होता है। जो हम जानते हैं, वही होता है। जो हम जानते हैं, उसको हम कितना ही बार-बार सोचें, तो भी जिसे हम नहीं जानते हैं, उसे हम कैसे पकड़ पाएंगे? वह जो अननोन है, वह नोन के घेरे में कैसे पकड़ में आएगा? वह जो अज्ञात है, वह ज्ञात में कैसे पकड़ा जाएगा?
इसलिए विचार करना जुगाली करने से ज्यादा नहीं है। कभी भैंस को दरवाजे पर बैठा हुआ जुगाली करते देखा हो। घास उसने खा लिया है, फिर उसी को निकाल-निकाल कर वह चबाती रहती है।
जिसको हम विचार करना कहते हैं, वह जुगाली है। विचार हमने इकट्ठे कर लिए हैं किताबों से, शास्त्रों से, संप्रदायों से, गुरुओं से, कॉलेजों से, स्कूलों से। चारों तरफ विचारों की भीड़ है, वे हमने इकट्ठे कर लिए हैं। फिर हम उनकी जुगाली कर रहे हैं। हम उन्हीं को चबा रहे हैं बार-बार। लेकिन उससे अज्ञात कैसे हमारे हाथ में आ जाएगा?
अगर अननोन को जानने की आकांक्षा पैदा हो गई हो, अगर अज्ञात को पहचानने का खयाल आ गया हो, तो वह जो नोन है, उसे विदा कर देना होगा। उसे नमस्कार कर लेना होगा। उससे कहना होगा अलविदा। उससे कहना होगा: तुमसे क्या होगा, तुम जाओ और मुझे खाली छोड़ दो। शायद खालीपन में मैं उसे जान लूं, जो मुझे पता नहीं है। लेकिन भरा हुआ मैं तो उसे कभी भी नहीं जान सकता हूं।
इसलिए विचारक कभी नहीं जान पाते हैं। और जो जान लेते हैं, वे विचारक नहीं हैं। जिसको हम मिस्टिक कहें, जिसको हम संत कहें, वे विचारक नहीं हैं। वह वह आदमी है जिसने कहा कि रहस्य है--अब जानेंगे कैसे, खोजेंगे कैसे, सोचेंगे कैसे--जिसने कहा रहस्य है, मिस्ट्री है, हम अपने को मिस्ट्री में खोए देते हैं। शायद खोने से मिल जाए, जान लें।
ओशो